Thursday, March 6, 2014

acharya astro: Santoshi Bhajan - Karti Hoon Tumhara Vrat Mein (HD...

acharya astro: Santoshi Bhajan - Karti Hoon Tumhara Vrat Mein (HD...

22 comments:

  1. बुधवार का दिन सभी सुखों का मूल बुद्धि के दाता भगवान श्री गणेश की उपासना का दिन है। श्रीगणेश की प्रसन्नता के लिए कई विधि-विधान शास्त्रों में बताए गए हैं, जो सरल भी हैं व शुभ फलदायी भी।

    इसी कड़ी में श्रीगणेश को विशेष रूप से मोदक या लड्डू चढ़ाने की भी परंपरा है। माना जाता है कि गणेशजी को मोदक बहुत प्रिय है। आखिर श्रीगणेश को मोदक ही प्रिय क्यों है और क्यों खासकर बुधवार के दिन मोदक का भोग लगाने का खास महत्व है? जानिए, इस विषय से जुड़ीं रोचक बातें।

    दरअसल, हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक कलियुग में भगवान गणेश के धूम्रकेतु रूप की पूजा की जाती है। जिनकी दो भुजाएं हैं। किंतु मनोकामना सिद्धि के लिये बड़ी आस्था से भगवान गणेश का चार भुजाधारी स्वरूप पूजनीय है, जिनमें से एक हाथ में अंकुश, दूसरे हाथ में पाश, तीसरे हाथ में मोदक व चौथे में आशीर्वाद है।

    सामान्यतः श्रीगणेश के हाथों में मोदक या लड्डू होने की वजह उनका प्रिय व्यंजन होना ही
    माना जाता है। जबकि धर्म दर्शन इसमें प्रतीक रूप में जीवन से संदेश व गूढ़ रहस्य उजागर करता है।

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  2. सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-

    'ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।'

    मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-

    'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।'

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  3. इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।' इसके जप के पश्चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-

    'ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।'

    मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-

    'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।'

    इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-

    ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्‌यर्थे जपे विनियोगः।

    ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
    ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
    ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
    ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
    ॐ क्षुं धुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
    ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
    ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
    ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
    ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
    ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
    ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
    ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
    ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
    ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
    ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
    ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
    ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
    ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
    ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
    ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
    महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
    इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर।
    चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
    एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
    आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥

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  4. इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।

    कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।

    जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।

    (इसके बाद देवी कवच का पाठ करना चाहिए।)

    ॥ अथ देव्याः कवचम्‌ ॥

    विनियोग
    ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्‌, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्‌, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः।

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  5. एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
    जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥20॥
    अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
    शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥21॥
    मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
    त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥22॥
    शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
    कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले च शांकरी॥23॥
    नासिकायां सुगन्दा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
    अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥24॥
    दन्तान्‌ रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
    घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥25॥
    कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमंगला।
    ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥26॥
    नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
    स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू में व्रजधारिणी॥27॥
    हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च।
    नखांछूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥28॥।
    स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
    हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥29॥
    नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
    पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥30॥
    कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
    जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥31॥
    गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
    पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥32॥
    नखान्‌ दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
    रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥33॥
    रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
    अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥34॥
    पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
    ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥35॥
    शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
    अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥36॥
    प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्‌।
    वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥37॥
    रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
    सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥38॥
    आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
    यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥39॥
    गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
    पुत्रान्‌ रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥40॥
    पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
    राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥41॥
    रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
    तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥42॥
    पदमेकं न गच्छेतु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
    कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥43॥
    तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
    यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्‌।
    परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्‌॥44॥
    निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
    त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्‌॥45॥
    इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्‌।
    यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥46॥
    दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
    जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥47॥
    नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
    स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्‌॥48॥
    अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
    भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥49॥
    सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
    अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥50॥
    ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
    ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥51॥
    नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
    मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्‌॥52॥
    यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
    जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥53॥
    यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्‌।
    तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥54॥
    देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्‌।
    प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥55॥
    लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥56॥


    ॥ इति देव्याः कवचं संपूर्णम्‌ ॥

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  6. ॥ ॐ नमश्चण्डिकायै॥

    मार्कण्डेय उवाच
    ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्‌।
    यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥

    ब्रह्मोवाच
    अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्‌।
    देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥2॥
    प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
    तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्‌॥3॥
    पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
    सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्‌॥4॥
    नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
    उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥5॥
    अग्निता दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
    विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥6॥
    न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
    नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥7॥
    यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि प्रजायते।
    ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥8॥
    प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
    ऐन्द्री गजसमानरूढा वैष्णवी गरुडासना॥9॥
    माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
    लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥10॥
    श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
    ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥11॥
    इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
    नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥12॥
    दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
    शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्‌॥13॥
    खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
    कुन्तायुधं त्रिशूलं च शांर्गमायुधमुत्तमम्‌॥14॥
    दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
    धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वस॥15॥
    नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
    महावले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥16॥
    त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन।
    प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥17॥
    दक्षिणेऽवतु वाराहीनैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
    प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥18॥
    उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
    ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद्धस्ताद् वैष्णवी तथा ॥19॥
    एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
    जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥20॥
    अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
    शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥21॥
    मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।

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  7. सुंदरकाण्ड में हनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन से लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं। नीचे सुंदरकाण्ड से जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है। आप जिस भी घटना के बारे में पढ़ना चाहते हैं उसकी लिंक पर क्लिक करें।
    • मंगलाचरण
    • हनुमान्‌जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध
    • लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका में प्रवेश
    • हनुमान्‌-विभीषण संवाद
    • हनुमान्‌जी का अशोक वाटिका में सीताजी को देखकर दुःखी होना और रावण का सीताजी को भय दिखलाना
    • श्री सीता-त्रिजटा संवाद
    • श्री सीता-हनुमान्‌ संवाद
    • हनुमान्‌जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनाद का हनुमान्‌जी को नागपाश में बाँधकर सभा में ले जाना
    • हनुमान्‌-रावण संवाद
    • लंकादहन
    • लंका जलाने के बाद हनुमान्‌जी का सीताजी से विदा माँगना और चूड़ामणि पाना
    • समुद्र के इस पार आना, सबका लौटना, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान्‌ संवाद
    • श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ चलकर समुद्र तट पर पहुँचना
    • मंदोदरी-रावण संवाद
    • रावण को विभीषण का समझाना और विभीषण का अपमान
    • विभीषण का भगवान्‌ श्री रामजी की शरण के लिए प्रस्थान और शरण प्राप्ति
    • समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना
    • दूत का रावण को समझाना और लक्ष्मणजी का पत्र देना
    • समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध और समुद्र की विनती, श्री राम गुणगान की महिमा

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  8. पंचम सोपान-मंगलाचरण
    श्लोक :
    * शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
    ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
    रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
    वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥
    भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥
    * नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
    सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
    भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
    कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥
    भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥
    * अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
    दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
    सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
    रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥
    भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

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  9. हनुमान्‌जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध

    चौपाई :
    * जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
    तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥
    भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥
    * जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
    यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥
    भावार्थ:-जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥
    * सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
    बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥
    भावार्थ:-समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥
    * जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
    जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥
    भावार्थ:-जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी चले॥4॥
    * जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥
    भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥
    दोहा :
    * हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
    राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥
    भावार्थ:-हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥
    चौपाई :
    * जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
    सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥
    भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्‌जी से यह बात कही-॥1॥
    * आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
    राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥
    भावार्थ:-आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान्‌जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ,॥2॥
    * तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
    कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥
    भावार्थ:-तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्‌जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले॥3॥
    * जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
    सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥
    भावार्थ:-उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्‌जी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥
    * जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
    सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥
    भावार्थ:-जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्‌जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥
    * बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
    मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥
    भावार्थ:-और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥
    दोहा :
    * राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
    आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥
    भावार्थ:-तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥
    चौपाई :
    * निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
    जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥
    भावार्थ:-समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥
    * गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
    सोइ छल हनूमान्‌ कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
    भावार्थ:-उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे

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  10. लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका में प्रवेश

    * नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
    सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥
    भावार्थ:-अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े॥4॥
    * उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
    गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥
    भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान्‌ की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥
    * अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥
    भावार्थ:-वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥
    छंद :
    * कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
    चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
    गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
    बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥
    भावार्थ:-विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥
    * बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
    नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
    कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
    नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥
    भावार्थ:-वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥
    * करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
    कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
    एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
    रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥
    भावार्थ:-भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचंद्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे॥3॥

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  11. दोहा-
    *पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
    अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥
    भावार्थ:-नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥
    चौपाई :
    * मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
    नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥
    भावार्थ:-हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥
    * जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
    मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥
    भावार्थ:-हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी॥2॥
    * पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
    जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥
    भावार्थ:-वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-॥3॥
    * बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
    तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥
    भावार्थ:-जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥
    दोहा :
    * तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
    तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥4॥
    भावार्थ:-हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥4॥
    चौपाई :
    * प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
    गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥
    भावार्थ:-अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥
    * गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
    अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥
    भावार्थ:-और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्‌ का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥
    * मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
    गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥
    भावार्थ:-उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥
    * सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
    भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥
    भावार्थ:-हनुमान्‌जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्‌ का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥

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  12. ॥ अथ कीलकस्तोत्रम् ॥
    ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिवऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
    श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं
    सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
    ॐ नमश्चण्डिकायै ।
    मार्कण्डेय उवाच ।
    ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
    श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥ १ ॥
    सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामपि कीलकम् ।
    सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ॥ २ ॥
    सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि कर्माणि सकलान्यपि ।
    एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रवृन्देन भक्तितः ॥ ३ ॥
    न मन्त्रो नौषधं तस्य न किञ्चिदपि विद्यते ।
    विना जप्येन सिद्ध्येत्तु सर्वमुच्चाटनादिकम् ॥ ४ ॥
    समग्राण्यपि सेत्स्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः ।
    कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ॥ ५ ॥
    स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुह्यं चकार सः ।
    समाप्नोति स पुण्येन तां यथावन्निमन्त्रणाम् ॥ ६ ॥
    सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः ।
    कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ॥ ७ ॥
    ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ।
    इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ॥ ८ ॥
    यो निष्कीलां विधायैनां चण्डीं जपति नित्यशः ।
    स सिद्धः स गणः सोऽथ गन्धर्वो जायते ध्रुवम् ॥ ९ ॥
    न चैवापाटवं तस्य भयं क्वापि न जायते ।
    नापमृत्युवशं याति मृते च मोक्षमाप्नुयात् ॥ १० ॥
    ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति ।
    ततो ज्ञात्वैव सम्पूर्णमिदं प्रारभ्यते बुधैः ॥ ११ ॥
    सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने ।
    तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जप्यमिदं शुभम् ॥ १२ ॥
    शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः ।
    भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ॥ १३ ॥
    ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यमेव च ।
    शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ॥ १४ ॥
    चण्डिकां हृदयेनापि यः स्मरेत् सततं नरः ।
    हृद्यं काममवाप्नोति हृदि देवी सदा वसेत् ॥ १५ ॥
    अग्रतोऽमुं महादेवकृतं कीलकवारणम् ।
    निष्कीलञ्च तथा कृत्वा पठितव्यं समाहितैः ॥ १६ ॥
    ॥ इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम् ॥

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  13. भूमि का चयन हो जाने के बाद भूमि का पूजन करें। सर्वप्रथम जल के छीटें देवें। भूमि पर स्वस्तिक बनाएं। भगवान गणेश के नाम का स्मरण कर पान सुपारी रखें। पान के पत्ते पर कुमकुम चावल से पूजन करें। दीप प्रज्वलित करें। दशों दिशाओं को प्रणाम करें। रक्षा की प्रार्थना करते हुए पीलो सरसों का दसो दिशाओं में छिड़काव करें।

    गेती का पूजन करें। गेती पर हल्दी से स्वस्तिक बनाएं। भूमि की आरती करें। आरती दसो दिशाओं में समर्पित करें। नारियल फोड़कर प्रसाद भूमि पर अर्पित करें। गुड़ का भोग थोड़ा जमीन पर रखें। इसके बाद यह प्रसाद कारीगरों, कन्याओं व अन्य लोगों में बांट दें।
    गौ माता में 33 कोटि देवी-देवता का वास है। इसलिए भूमि पूजन वाले दिन गौ माता का विशेष पूजन करें। गौ मूत्र एक पवित्र औषधि है। पूजन के पश्चात गौ मूत्र का छिड़काव दसो-दिशाओं में करें।
    शुभ मुहूर्त में भूमि पूजन करें। शुभ माह, शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ दिशा, शुभ लग्न का निर्णय करके ही निर्माण कार्य शुरु करें।

    भूमि पूजन में पहली खुदाई

    भूमि पूजन में पहली खुदाई का बहुत महत्तव होता है। वास्तुपुरुष का सिर ईशान कोण में व कुक्षी यानी कि जंघा आग्नेय कोण में मानी गई है। इसलिए पहली गेती आग्नेय कोण में चलाना चाहिए। संक्रांति अनुसार वास्तुपुरुष हर तीन महीने में अपनी दिशा बदलता है। लेकिन संक्रांति अनुसार श्रेष्ठ मुहूर्त नहीं मिलने पर आग्नेय कोण में ही प्रथम गेती चलाना शास्त्र सम्मत है।

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  14. नए गृह में प्रवेश की विधि
    पूजन सामग्री- कलश, नारियल, शुद्ध जल, कुमकुम, चावल, अबीर, गुलाल, धूपबत्ती, पांच शुभ मांगलिक वस्तुएं, आम या अशोक के पत्ते, पीली हल्दी, गुड़, चावल, दूध आदि।

    गृह प्रवेश की सरल विधि

    घर में किसी शुभ मुहूर्त में प्रवेश करना चाहिए। मंगल कलश के साथ सूर्य की रोशनी में नए घर में प्रवेश करना चाहिए।
    घर को बंदनवार, रंगोली, फूलों से सजाना चाहिए। मंगल कलश में शुद्ध जल भरकर उसमें आम या अशोक के आठ पत्तों के बीच नारियल रखें। कलश व नारियल पर कुमकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाएं। नए घर में प्रवेश के समय घर के स्वामी और स्वामिनी को पांच मांगलिक वस्तुएं नारियल, पीली हल्दी, गुड़, चावल, दूध अपने साथ लेकर नए घर में प्रवेश करना चाहिए। भगवान गणेश की मूर्ति, दक्षिणावर्ती शंख, श्री यंत्र को गृह प्रवेश वाले दिन घर में ले जाना चाहिए। मंगल गीतों के साथ नए घर में प्रवेश करना चाहिए। पुरुष पहले दाहिना पैर तथा स्त्री बांया पैर बढ़ा कर नए घर में प्रवेश करें।

    कलश स्थापना-

    कलश के साथ घर में प्रवेश के बाद गणपति के ध्यान और गणेश मंत्रों के साथ घर के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा जहां मिलती हैं) में या घर के मंदिर में स्थापित कर दे। कलश को थोड़े चावल रखकर उन स्थापित करना चाहिए।

    रसोई की पूजा-

    किचन में गैस चूल्हा, पानी रखने के स्थान और स्टोर की जगह धूप, दीपक के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल आदि से पूजन कर स्वस्तिक चिन्ह बना देने चाहिए। पहले दिन रसोई में गुड़ व हरी सब्जी रखना चाहिए। चूल्हे पर दूध उफानना चाहिए। कोई मिठाई बनाकर उसका भोग लगाना चाहिए। हलुआ या लापसी बनाई जा सकती है। घर में बनाया भोजन सबसे पहले भगवान को भोग लगाएं। गौ माता, कौआ, कुत्ता, चींटी आदि के निमित्त भोजन निकाल कर रखें। पहले दिन अपने परिवार, मित्रों के साथ ब्राह्मण भोजन कराएं। अगर संभव ना हो तो एक ब्राह्मण को भोजन करा दें।

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  15. नए वाहन की पूजन विधि
    सामग्री - कर्पूर, नारियल, फूलमाला, जल का कलश, गुड़ या मिठाई, कलावा, सिंदूर घी मिश्रित
    किसी अच्छे दिन नए वाहन को घर में लाकर उसका पूजन करें। सबसे पहिले दूूर्वा या आम के पत्ते से वाहन पर तीन बार जल छिड़के। जल छिड़कने के पीछे कारण यह है कि अब यह वाहन हमारें घर का हिस्सा हुआ। यह वाहन हमारे द्वारा अपना लिया गया हैं। इसका हमारे घर में प्रवेश हमारे लिए और इसके लिए शुभ हो।

    अब सिन्दूर व घी के तेल के मिश्रण से वाहन पर स्वस्तिक का निशान बनाएं। स्वस्तिक शुभ होने के साथ-साथ ही काफी ऊर्जाप्रदायक होता हैं। वाहन द्वारा यात्रा में किसी प्रकार का व्यवधान न आएं, इसीलिए स्वस्तिक बनाया जाता है। अब वाहन को फूलमाला पहनाएं। अब वाहन में तीन बार कलावा लपेटे। कलावा रक्षासूत्र होता है। जो कि वाहन की सुरक्षा के लिए होता है।
    अब कर्पूर से आरती करें। कलश के जल को दाएं-बाएं डाले। यह वाहन के लिए स्वागत का भाव को प्रदर्शित करता हैं। कर्पूूर की राख से एक तिलक वाहन पर लगा दें। यह वाहन को नजरदोष से बचाता है। अब वाहन पर मिठाई रखें। बाद में ये मिठाई गौ माता को खाने को दें। एक नारियल लेकर नए वाहन पर से सात बार घुमाकर वाहन के आगे फोड़े। वाहन स्टार्ट कर उसे नारियल वाले स्थान पर से होते हुए एक राउंड लें।

    नया वाहन बार-बार खराब हो रहा हो तो करें यह उपाय-
    नया वाहन से सदा अच्छा लाभ मिलता रहें इसके लिए एक पीली कौड़ी लें। इस कोड़ी को काले धागे में पिरो लें। बुधवार के दिन इसे अपने वाहन पर लटका दें।

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  16. नींव भवन की मजबूती का आधार होती है। नींव की खुदाई के लिए शुभ मुहूर्त का चयन करें। शुभ माह, शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ दिशा, शुभ लग्न का निर्णय करके ही निर्माण कार्य शुरु करें।

    नींव की खुदाई

    भूमि पूजन के बाद नींव की खुदाई ईशान कोण से ही प्रारंभ करें। ईशान के बाद आग्नेय कोण की खुदाई करें। आग्नेय के बाद वायव्य कोण, वायव्य कोण के बाद नैऋत्य कोण की खुदाई करें। कोणों की खुदाई के बाद दिशा की खुदाई करें। पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में क्रम से खुदाई करें।

    नींव की भराई

    नींव की भराई, नींव की खुदाई के विपरीत क्रम से करें। सबसे पहले नेऋत्य कोण की भराई करें। उसके बाद क्रम से वायव्य, आग्नेय, ईशान की भराई करें। अब दिशाओं में नींव की भराई करें। सबसे पहले दक्षिण दिशा में भराई करें। अब पश्चिम ,उत्तर व पूर्व में क्रम से भराई करें।

    नींव पूजन में कलश स्थापना

    नींव पूजन में तांबे का कलश स्थापित किया जाना चाहिए। कलश के अंदर चांदी के सर्प का जोड़ा, लोहे की चार कील, हल्दी की पांच गांठे, पान के 11 पत्तें, तुलसी की 35 पत्तियों, मिट्टी के 11 दीपक, छोटे आकार के पांच औजार, सिक्के, आटे की पंजीरी, फल, नारियल, गुड़, पांच चैकोर पत्थर, शहद, जनेऊ, राम नाम पुस्तिका, पंच रत्न, पंच धातु रखना चाहिए। समस्त सामग्री को कलश में रखकर कलश का मुख लाल कपड़े से बांधकर नींव में स्थापित करना चाहिए।

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  17. रविवार को सूर्य की पूजा से क्यों प्रसन्न होते हैं हनुमानजी
    एक बार की बात है माता अंजनि हनुमान जी को सुलाकर अपने कामों में व्यस्त हो गई। कुछ समय बाद उनकी नींद खुली तो वो भुख से परेशान होने लगे। तभी उनकी नजर आकाश में भगवान सूर्य नारायण पर पड़ी। उन्होंने सोचा कि यह जो लाल लाल सा दिखाई दे रहा है यह कोई मीठा फल है। एक ही झटके में वह भगवान सूर्य नारायण पर झपट पड़े। उसने उन्हें जल्दी से पकड़ कर अपने मुंह में डाल लिया। उसी समय तीनों लोकों में अंधेरा छा गया और भयानक त्रासदी हो गई। जीवन खत्म होने लगा। उस समय सूर्य ग्रहण चल रहा था, राहु सूर्य को ग्रसने के लिए उनके समीप आ रहा था। जब हनुमान जी की दृष्टि उस पर पड़ी उन्होंने सोचा कि यह कोई काला फल है। उनकी भूख अभी शांत न हुई थी। इसलिए उसको खाने के लिए उन्होंने उस पर भी झपटा लगाया, लेकिन राहु उनकी पकड़ से बचकर भाग निकले। देवराज इंद्र की शरण में पहुंचे।डर के मारे कांपते स्वर में बोले देवराज यह कैसा अनर्थ कर दिया आज आपने।

    देवराज इंद्र बोले,क्या हो गया आप इतने भयभीत क्यों लग रहे हैं। राहु बोले, यह कौन सा दूसरा राहु सूर्य को ग्रसने के लिए भेज दिया। यदि आज मैं अपने प्राण बचा कर भागा न होता तो वह मुझे भी खा जाता। राहु की बात सुन कर देवराज इंद्र भी हैरान हो गए। वह अपने सफेद हाथी जिसमें उनका कवच, बड़ा धनुष, बाण और असीम शक्तियां थी पर सवार होकर हाथ में वज्र लेकर स्वर्ग से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि एक छोटा सा वानर बालक भगवान सूर्य नारायण को अपने मुंह में दबाए आकाश में खेल रहा है। जब हनुमान की दृष्टि सफेद ऐरावत पर सवार इंद्र पर पड़ी तो उन्हें फिर से आभास हुआ कि यह कोई खाने लायक सफेद फल है। वह अपना खेल छोड़कर झटपट उस ओर लपके। हनुमान जी को अपनी तरफ आता देखकर देवराज इंद्र के क्रोध का आवेश बढ़ गया। उन्होंने खुद को सुरक्षित करने और भगवान सूर्य को हनुमान जी की कैद से मुक्त करवाने के लिए अपने वज्र से हनुमान जी पर तेज प्रहार किया। वज्र के तेज प्रहार से हनुमान का मुंह खुल गया और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। सूर्य भगवान शीघ्रता से बाहर आ गए।

    अपने पुत्र की यह दशा देख हनुमान के धर्म पिता वायुदेव को क्रोध आ गया। उन्होंने उसी समय अपनी गति रोक ली। तीनों लोकों में वायु का संचार रूक गया। वायु के थमने से कोई भी जीव सांस नहीं ले पा रहे थे और पीड़ा से तड़पने लगे। उस समय समस्त सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गए। ब्रह्मा जी उन सभी को अपने साथ लेकर वायुदेव की शरण में गए। वे मूर्छित हनुमान को गोद में लेकर बैठे थे और उन्हें उठाने का हर संभव प्रयास कर रहे थे। ब्रह्मा जी ने उन्हें जीवित कर दिया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सब प्राणियों की पीड़ा दूर की। केसरीनंदन, हनुमान के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे देवताओं से मिले वरदान के कारण अनेक विलक्षण शक्तियों के स्वामी भी बने। बाद में सूर्य ही श्री हनुमान के गुरु बने। यही कारण है कि रविवार के दिन गुरु यानी सूर्य का ध्यान शिष्य यानी श्री हनुमान को भी प्रसन्न करने वाला माना गया है।

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  18. कर्ज एक ऐसा दलदल है, जिसमें एक बार फंसने पर व्यक्ति उसमें धंसता ही चला जाता है। ज्योतिष शास्त्र में षष्ठम, अष्टम, द्वादश भाव एवं मंगल को कर्ज का कारक ग्रह माना जाता है। मंगल के कमजोर होने पर या पाप ग्रह से संबंधित होने पर या अष्टम, द्वादश, षष्ठम भाव में पर नीच स्थिति में होने पर व्यक्ति सदैव ऋणी बना रहता है। ऐसे में यदि मंगल पर शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़े तो कर्ज होता है, लेकिन मुश्किल से उतरता है। शास्त्रों में मंगलवार और बुधवार को कर्ज के लेन-देन के लिए वर्जित किया गया है। मंगलवार को कर्ज लेने वाला व्यक्ति आसानी से कर्ज चुका नहीं पाता है तथा उस व्यक्ति की संतान भी इस वजह से परेशानियां उठाती है।

    कर्ज निवारण से मुक्ति के लिए उपाय...
    1. शनिवार को ऋणमुक्तेश्वर महादेव का पूजन करें।
    2. मंगल की भात पूजा, दान, होम और मंगल के मंत्रों का जप करें।
    3. मंगल एवं बुधवार को कर्ज का लेन-देन न करें।
    4. लाल, सफेद वस्त्रों का अधिकतम प्रयोग करें।
    5. श्रीगणेश को प्रतिदिन दूर्वा और मोदक का भोग लगाएं।
    6. श्रीगणेश के अथर्वशीर्ष का पाठ प्रति बुधवार करें।
    7. शिवलिंग पर प्रतिदिन कच्चा दूध चढ़ाएं।

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  19. .व्यवसायिक उन्नति के लिए तांबे के बर्तन में रखा हुआ पानी पिएं
    तांबे के बर्तन में रखा हुआ पानी पीना शरीर को कई लाभ पहुंचाता है। तांबे में रखा हुआ पानी से मंगल और चंद्र की युति का शुभ प्रभाव बढ़ता है जिससे कि व्यवसायिक उन्नति के लिए अच्छा होता है।
    10.युवा इंसान को मीठा खिलाएं
    मंगल युवा व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए मंगलवार को किसी युवा व्यक्ति को मीठा खिलाएं या दान करेे। इससे मंगल ग्रह की पीड़ा घटती है।
    11.लाल गाय को खिलाएं गुड़-रोटी
    मंगलवार को गाय को गुड़ व रोटी खिलाने से मंगल ग्रह के कारण आने वाली पैसे की तंगी की समस्या दूर होती है।

    12.मां गायत्री का पूजन करने से होती मंगल के अशुभ प्रभाव में कमी
    देवी गायत्री का पूजन मंगल ग्रह के साथ-साथ सूर्य ग्रह के अशुभ प्रभाव को दूर करने वाला कहा गया है।

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  20. इस माह में भगवान विष्णु और शिवजी का विशेष पूजन किया जाता है। जो लोग वैशाख मास में इन देवताओं का पूजा करते हैं, उनके सभी दुख और परेशानियां दूर हो जाती हैं। यहां जानिए शिवलिंग पूजा का आसान उपाय, इस उपाय से अक्षय पुण्य के साथ ही सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
    इस प्रकार करें उपाय
    1. हर रोज सुबह नित्यकर्म और स्नान कर पवित्र हो जाएं।
    2. शिव उपासना के लिए सफेद वस्त्र पहनें।
    3. पंचोपचार पूजन करें। चंदन, फूल, नैवेद्य, धूप और दीप आदि पूजा में शामिल करें।
    4. शिवजी को जल व बिल्वपत्र चढ़ाएं। पूजन में भगवान विष्णु के मंत्र या शिव मंत्र का जप किया जा सकता है।
    मंत्र-
    ॐ विष्णुवल्लभाय नम:
    ॐ महेश्वराय नम:
    ॐ शंकराय नम:
    4. भगवान को प्रसाद के रूप में फल या दूध से बनी मिठाई अर्पित करें।
    5. पूजन के बाद धूप, दीप, कर्पूर से आरती करें।
    हिन्दी पंचांग के अनुसार दूसरा माह है वैशाख
    हिन्दी पंचांग के अनुसार चैत्र मास के बाद दूसरा वैशाख मास है। इस माह को बहुत पवित्र और पूजन कर्म के लिए श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि इसका संबंध कई देव अवतारों से है। प्राचीन काल में इस माह के शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया तिथि पर भगवान विष्णु के नर-नारायण, परशुराम, नृसिंह और ह्ययग्रीव अवतार हुए हैं। शुक्ल पक्ष की नवमी को माता सीता धरती से प्रकट हुई थीं। चार धाम में से एक बद्रीनाथ धाम के कपाट वैशाख माह की अक्षय तृतीया से ही खुलते हैं। वैशाख के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी निकलती है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या पर देववृक्ष वट की पूजा की जाती है। इस माह में किए गए दान, स्नान, जप, यज्ञ आदि शुभ कर्मों से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

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  21. हिंदू धर्म में महिलाओं को बहुत ही आदर व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। हमारे ग्रंथों में अनेक महान, पतिव्रत व दृढ़ इच्छा शक्ति वाली महिलाओं का वर्णन मिलता है। कुछ ग्रंथों में स्त्रियों के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है तो कुछ में उनके व्यवहार के बारे में बताया गया है। इसी प्रकार महाभारत में भी स्त्रियों के संबंध में कुछ विशेष बातों का वर्णन किया गया है। यह बातें महाभारत के अनुशासन पर्व में तीरों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताई थीं। इनमें से कुछ बातें आज के समय में भी प्रासंगिक हैं। ये बातें इस प्रकार हैं-

    नहीं करना चाहिए स्त्रियों का अनादर
    भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया था कि जिस घर में स्त्रियों का अनादर होता है, वहां के सारे काम असफल हो जाते हैं। जिस कुल की बहू-बेटियों को दु:ख मिलने के कारण शोक होता है, उस कुल का नाश हो जाता है।

    लक्ष्मी का स्वरूप है स्त्री
    भीष्म पितामह के अनुसार स्त्रियां ही घर की लक्ष्मी हैं। पुरुष को उनका भलीभांति सत्कार करना चाहिए। उसे प्रसन्न रखकर उसका पालन करने से स्त्री लक्ष्मी का स्वरूप बन जाती हैं।

    नाराज स्त्रियां दे देती हैं श्राप
    स्त्रियां नाराज होकर जिन घरों को श्राप दे देती हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। उनकी शोभा, समृद्धि और संपत्ति का नाश हो जाता है। संतान की उत्पत्ति, उसका पालन-पोषण और लोकयात्रा का प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह भी उन्हीं पर निर्भर है। यदि पुरुष स्त्रियों का सम्मान करेंगे तो उनके सभी कार्य सिद्ध हो जाएंगे।

    जहां होता है स्त्रियों का आदर, वहां देवता निवास करते हैं
    भीष्म पितामह के अनुसार यदि स्त्री की मनोकामना पूरी न की जाए तो वह पुरुष को प्रसन्न नहीं कर सकती। इसलिए स्त्रियों का सदा सत्कार और प्यार करना चाहिए। जहां स्त्रियों का आदर होता है, वहां देवता लोग प्रसन्न होकर निवास करते हैं।

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  22. एक बार एक लड़के ने एक सांप पाला , वो सांप से बहुत प्यार करता था उसके साथ ही घर में रहता .. एक बार वो सांप बीमार जैसा हो गया उसने खाना खाना भी छोड़ दिया था , यहाँ तक कई दिनों तक उसने कुछ नहीं खाया तो वो लड़का परेशान हुआ और उसे वेटरिनरी डॉ के यहाँ ले के गया .... डॉ ने सांप का चैक अप किया और उस लड़के से पूछा " क्या ये सांप आपके साथ ही सोता है ?" उस लड़के ने बोला हाँ .... डॉ ने बोला आपसे बहुत सट के सोता है लड़का बोला हाँ ............ डॉ ने पूछा क्या रात को ये सांप अपनी पूरी बॉडी को स्ट्रेच करता है ...?
    ये सुन कर लड़का चौंका उसने कहा हाँ डॉ .. ये रात को अपनी बॉडी को बहुत बुरी तरह स्ट्रेच करता है और मुझसे इसकी इतनी बुरी हालत देखी नहीं जाती ,, और मैं किसी भी तरह से इसका दुःख दूर नहीं कर पाता ........
    डॉ ने कहा .... इस सांप को कोई बीमारी नहीं है ... और ये जो रात को तुम्हारे बिल्कुल बगल में लेट कर अपनी बॉडी को स्ट्रेच करता है वो दरअसल तुम्हें निगलने के लिए अपने शरीर को तुम्हारे बराबर लम्बा करने की कोशिश करता है .... वो लगातार ये परख रहा है कि तुम्हारे पूरे शरीर को वो ठीक से निगल पायेगा या नहीं और निगल लिया तो पचा पायेगा या नहीं .............
    इसलिए इस घटना से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जो आपके साथ हर वक्त रहते हैं .... जिनके साथ आप खाते पीते उठते बैठते सोते हैं ...... जरुरी नहीं कि वो भी आपको उतना ही प्यार करते हो जितना आप उन्हें प्यार करते हैं ...... हो सकता है वो आपको निगलने के लिए अपना आकार धीरे-धीरे बढ़ा रहा हो ..... और आप निरे भावुक होकर उसकी दीन हीन दिशा को देखकर द्रवित हो रहे हो...............
    इसलिए सावधान हो जाइए

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